भारतीय सामाजिक संरचना में जाति व्यवस्था और पितृसत्तात्मक सोच ने महिलाओं, विशेष रूप से अनुसूचित जाति की महिलाओं की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थिति को अत्यंत जटिल बना दिया है। यह शोध-पत्र धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुसूचित जाति की महिलाओं की लिंग पहचान पर पड़ने वाले प्रभाव का गहन समाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत करता है। भारतीय समाज में प्रचलित धार्मिक आस्थाएँ और परंपरागत अनुष्ठान महिलाओं के जीवन की प्रत्येक गतिविधि को नियंत्रित करने वाले सामाजिक उपकरण के रूप में कार्य करते हैं। अनुसूचित जाति की महिलाएँ इन व्यवस्थाओं में न केवल जातिगत बल्कि लैंगिक भेदभाव का भी सामना करती हैं, जिससे उनकी पहचान, सामाजिक भूमिका और अवसर सीमित हो जाते हैं। अध्ययन का उद्देश्य अनुसूचित जाति की महिलाओं के धार्मिक एवं सामाजिक अनुभवों के माध्यम से यह जानना है कि कैसे धार्मिक मान्यताएँ और जाति आधारित रीति-रिवाज उनकी लिंग पहचान का निर्धारण करते हैं। शोध के लिए गुणात्मक शोध पद्धति अपनाई गई, जिसमें अनुसूचित जाति की 50 महिलाओं से साक्षात्कार, केस स्टडी और प्रेक्षण विधियों द्वारा जानकारी संकलित की गई। अध्ययन के निष्कर्ष दर्शाते हैं कि मंदिर प्रवेश, धार्मिक आयोजनों, विवाह, मृत्यु संस्कार तथा सार्वजनिक अनुष्ठानों में अनुसूचित जाति की महिलाओं को द्वितीयक दर्जा दिया जाता है। धार्मिक आस्थाओं के नाम पर उनके लिए सामाजिक मर्यादाएँ, आचार-संहिता और व्यवहारगत प्रतिबंध लागू किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त, सामाजिक रीति-रिवाज उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और राजनीतिक भागीदारी के अवसरों को भी नियंत्रित करते हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि धार्मिक ग्रंथों और सामाजिक परंपराओं की व्याख्या पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण से की जाती है, जिससे अनुसूचित जाति की महिलाओं की लिंग पहचान एक दमनात्मक संरचना में आबद्ध रहती है। यह शोध सामाजिक न्याय, दलित स्त्रीवाद और समकालीन लैंगिक विमर्श में महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप प्रस्तुत करता है। साथ ही, यह धार्मिक आस्थाओं और परंपरागत रीति-रिवाजों के प्रभाव से उत्पन्न सामाजिक असमानताओं को उजागर कर, सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्निर्माण तथा नीति-निर्माण में सुधारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
शब्दकोशः धार्मिक मान्यताएँ, सामाजिक रीति-रिवाज, लिंग पहचान, जातिगत भेदभाव, पितृसत्ता, दलित स्त्रीवाद।