प्रस्तुत शोध पत्र में प्राचीन भारतीय षिक्षा की प्रासंगिकता का विवेचन किया गया है। भारतीय संस्कृति की आधारशिला के रूप में प्राचीन शिक्षा का महत्व सर्वविदित रहा है। शिक्षा एक ऐसा तत्व रही है जो व्यक्ति को प्रकृति और संस्कृति दोनों की ओर ले जाती है। इसलिए भारत में शिक्षा को औपचारिक न रखकर संस्कृति के अंग के रूप में स्वीकार किया गया था। यही कारण था कि तैत्तिरीय उपनिषद में तीन वल्लियों में शिक्षा को प्रथम वल्ली के रूप में उल्लेखित किया गया है और इसमें शिक्षा के आह्वान, पाठ वैभव, विषय आश्रय, उद्देश्य आदि के बारे में विचार किया गया है। प्राचीन शिक्षा बहुआयामी होने के कारण समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुलभ थी। सभी लोग अपनी योग्यता के अनुरूप तथा इच्छानुसार विषय की शिक्षा प्राप्त करते। इसलिए शिक्षा समाप्ति के बाद रोजगार की समस्या नहीं होती। वर्तमान समाज में शिक्षा के उद्देश्य स्पष्ट नहीं हैं। इसलिए रोजगार बाजार में गलाकाट प्रतिस्पर्धा हो गई है। इसी कारण प्रतिभा पलायन और मानवीय संवेदना का नाश हो रहा है। हमारे देश के शिक्षाविदों का स्पष्ट मत था कि शिक्षा मनुष्य के आंतरिक विषादों का नाश करती है, उसे बुद्धिमान और विचारशील बनाती है, जबकि शिक्षा के क्षेत्र में भारी उत्रति के बाद भी आज मानवीय संवेदनाएं उभर नहीं पा रही हैं जिससे विद्यार्थियों के मन में संवेदना- विहीन महत्वकांक्षा जन्म ले रही है। शिक्षा को धनलाभ से पूर्णतः अलग नहीं रखा जा सकता, लेकिन भौतिक समृद्धि को भी शिक्षा का एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता। इसलिए वर्तमान युग में प्राचीन भारत की शिक्षा के नैतिक मूल्य, चारित्रिक उत्थान, संस्कृति एवं परम्परा से समन्वय करने की आवश्यकता है।
शब्दकोशः प्राचीन षिक्षा, प्रासंगिकता, मूल्य, प्रतिमान, संस्कार।