रोजगार किसी भी देश और समाज के आर्थिक विकास की कंुजी है, जिस गति से रोजगार पाने वालों की संख्या और आमदनी में बढोतरी होती है, उसी गति से देश विकास के पथ पर अग्रसर होता है, यह सच्चाई स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान गांधीजी ने पहचान ली थी और उन्होनें ‘ग्राम-स्वराज’ का नारा दिया था, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के पास सार्थक काम और अपने आप में आत्मनिर्भर गांव की कल्पना की गई थी। मानव सम्मान के साथ जीवन जीने एवं जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति को सक्षम बनाने हेतू रोजगार का अधिकार अति आवश्यक है, इसके अभाव में दूसरे मानवाधिकारों की महत्वता गौण हो जाती है। इस प्रकार का अधिकार भारत जैसे विकासशील लोकतंत्र के लिए अनिवार्य हो जाता है, जो स्वयं के लोककल्याणकारी राज्य होने की घोषणा संविधान में करता है। इस पृष्ठभूमि में यह आलेख मानवाधिकारों के दृष्टिकोण से रोजगार के अधिकार की अवधारणा और भारतीय संविधान में वर्णित इनसे संबंधित प्रावधानों का वर्णन करते हुए भारतीय न्यायपालिका द्वारा भारत में मौजूदा कानूनी प्रणाली के भीतर रोजगार के अधिकार की न्यायशास्त्रीय और संवैधानिक जांच करने का भी प्रयास करता है। इसके अन्तर्गत भारत सरकार द्वारा रोजगार प्रदान करने हेतू प्रारम्भ की गई विभिन्न योजनाओं, कार्यक्रमों का भी संक्षिप्त वर्णन किया गया है।
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