अनुसन्धान, आलोचना और आलोचक दृष्टि को समझने के लिए हमें साहित्य और इतिहास की प्रकृति को भी जानना चाहिए। इतिहास साहित्य को आधार भूमि प्रदान करता है और साहित्य इतिहास को एक नई व्याख्या। चाहे इतिहास हो या साहित्य दोनों का संबंध मनुष्य के सच्चे और वास्तविक स्वरूप की पहचान से हैं। इतिहास अपनी तथ्यपरकता के साथ उस रूप का अनुसन्धान करता है और साहित्य अपनी कल्पना की सर्जना को लिए उसके वास्तविक रूप की संभावनाओं को सामने लाता है। जो अंतर है वो यह है कि इतिहासकार वस्तु को वस्तु रूप में ही देखता है जबकि साहित्यकार उसको सद्रूप ,चिद्रूप और आनंद स्वरूप में देखने का प्रयास करता है। अगर हम साहित्य और इतिहास के दर्शन के स्तर पर बात करें तो दोनों में ही शाश्वतत्ता रहती है लेकिन इतिहास में ज्ञान की शाश्वतत्ता अपने वस्तुनिष्ठ रूप से बाहर नहीं निकल पाती है जबकि साहित्य में ज्ञान की शाश्वतत्ता अनुभूति की सुन्दरता को भी प्राप्त कर लेती है। कवि अपनी प्रतिभा के बल पर कल्पित पात्रों को भी शाश्वतत्ता प्रदान करता है। साहित्य साच और झूठ की परिधि से बाहर संभावित विश्वसनीयता की सर्जना का नाम है। अज्ञेय ने अपने निबंध ‘कला का स्वभाव और उद्देश्य’ में कला को सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न मानते हुए कहा कि “कला सम्पूर्णता की ओर जाने का प्रयास है,व्यक्ति की अपने को सिद्ध प्रमाणित करने की चेष्टा है। अर्थात् वह अंततः एक प्रकार का आत्मदान है, जिसके द्वारा व्यक्ति का अहं अपने को अक्षुण्ण रखना चाहता है।”1