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वैदिक साहित्य में गो का महत्व

अमित कुमार चंदेल (Amit Kumar Chandel)

वैदिक काल में आर्थिक विकास की दृष्टि से पशुपालन को सर्वाेपरि स्थान दिया गया है। वेदों में अनेक स्थानों पर गृहस्थ में अभीष्ट ऐश्वर्य के लिए अभ्यर्थना करते हुए पशुओं एवं गौओं के लिए प्रार्थना की गई है कि मेरे घर में पशु बहकर आयें अर्थात् पशु इतने अंधिक हो कि आते ही चले जायें, ये पशु निरोग हो - श्इमं गोष्ठं पशवः संस्रवन्तु। 1.वैदिक गृहस्थ के जीवन में गो पालन का बहुत अधिक महत्त्व है। गो की व्युत्पत्ति गम्  धातु से मानी गई है-गच्छत्यनेन गम करणे। वैदिक कोश निघण्टु में गौ के पर्यायवाची शब्दों में अघ्न्या, अहि और अदिति का भी समावेश है। यास्काचार्य इनकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि अध्या अर्थात् जिसे कभी मारना नहीं चाहिये, अहि अर्थात् जिसका कदापि वध नहीं होना चाहिये, अदिति अर्थात् जिसके खंड नहीं करने चाहिये। प्रायः वेदों में गाय इन्हीं नामों से पुकारी गई है। वेदों में गाय को अघ्न्या कहा गया है। अर्थात् वह अहिंसनीय है, वध न किये जाने योग्य, हनन न करने योग्य है। वेदों में पशुओं की हत्या का विरोध तो है ही बल्कि गौ हत्या पर तो तीव्र आपत्ति करते हुए उसे जो न करने योग्य हो माना गया है। यजुर्वेद में गाय को जीवन दायिनी पोषण दाता मानते हुए गौ हत्या को वर्जित किया गया है। मानव जाति के लिये गौ से बढ़कर उपकार करने वाली कोई वस्तु नहीं है। गौ मानव जाति के लिये माता के समान उपकार करने वाली, दीर्घायु करने वाली और निरोगता देने वाली है। यह अनेक प्रकार से प्राणी मात्र की सेवा कर उन्हें सुख पहुँचाती है। इसके उपकार से मनुष्य कभी उऋण नहीं हो सकता। यही कारण है हिन्दु जाति ने गाय को देवता और माता के सदृश समझकर उसकी सेवा सुश्रुषा करना अपना धर्म समझा। गो से मानव जाति का जीवन पालित एवं पोषित होता है। हमारे देश में दूध की समस्या से निजात दिलाने में गो का महत्त्वपूर्ण योगदान है। गो सोम के गुणों से युक्त मधुर दूध अपने अन्दर रखती है।


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