भौतिक दृष्टिकोण के अन्तर्गत् विभिन्न मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि व्यक्ति वातावरण में रहता है एवं वातावरण के साथ अन्तःक्रिया करता है जिसके फलस्वरूप उस पर परिवेश एवं वातावरण का प्रभाव पड़ता है तथा उसी अनुरूप उसके मनोदैहिक शीलगुणों में विचलन व परिवर्तन आते रहते हैं। भौतिक स्तर पर आयु की हर अवस्था में व्यक्ति अपनी जैविक एवं सामाजिक आवश्यकताओं यथा भूख, प्यास, यौन, निद्रा, विश्राम, सुरक्षा एवं प्रतिष्ठा की पूर्ति स्वयं अपने स्तर पर करने का प्रयत्न करता है। इन क्रियाओं की पूर्ति के लिए उसे सामाजिक मान्यता या सुविधा न मिलने से उसमें तनाव, दबाव, एवं संघर्ष की स्थितियां पैदा हो जाती हैं। किशोर अवस्था में भी ये स्थितियां अन्तर्दृष्टि, प्रत्यक्षीकरण, अहम् और पराहम् की तनुता तथा तनाव के कारण उत्पन्न होती हैं।