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पर्यावरणवाद पर एक नवीन अ/ययन

प्राचीन भारतीय दार्शनिकों को पर्यावरण का अद्भुदत ज्ञान था। यह ज्ञान वेद, पुराण तथा उपनिषदों में पृथ्वी की उत्पति से लेकर पृथ्वी पर होने वाले महाप्रलय तक का वर्णित है। मनुष्य प्राणी जगत में सर्वाधिक विकसित एवं सभ्य प्राणी है। मनुष्य के उद्विकास के साथ-साथ सांस्कृतिक विकास भी हुआ है। मनुष्य अपनी भौतिक आवश्यकताओ की पूर्ति हेतु अपने चारों ओर के पर्यावरण को इच्छानुसार रूपांतरित कर रहा है। भौतिक सम्पन्नता के आधार पर मनुष्य सतत विकसित हुआ है, परन्तु पर्यावरण की दृष्टि से बहुत पिछडता जा रहा है। आधुनिक मनुष्य की असंगतता उसके सामाजिक, पर्यावरणीय अस्तित्व को छिन सकती है। कृषि उपज के लिए वैश्विक मानको को लागू करने से खेती के पारंपरिक तरिकों की भुमिका कम हो गई है। मानव निर्मित समस्याएं जैसे- महामारी, परमाणु हत्यार, ग्लोबल वार्मिंग, प्रदुषण, पीने के पानी की कमी, दुषित भोजन, ओजोन में कमी आदि पृथ्वी अस्तित्व के लिए खतरे को बढा रही है। सैन्यीकरण, औद्योगिकीकरण और पूजीं संकेन्द्रण पर्यावरण दुपयोग के कुछ सबसे गंभीर कारण है। उत्पादो को नियंत्रित कर विकास को पर्यावरण के अर्न्तगत ही करना चाहिए। पर्यावरण संबंधित चिन्ताओ पर चर्चा करने के लिए अनेक सम्मेलन व सम्मितियों का निर्माण किया गया। इनमें पर्यावरण की नैतिकता और स्थिरता से सम्बन्धित चिन्ताओ संबोधित करते है, और नैतिक मुद्दो को उजागर किया जाता है। एक वैश्विक शिखर सम्मेलन द्वारा किये गये निर्णय गैर भागीदार व भागीदार राष्ट्र के लिए अनिवार्य होने चाहिए। ये पर्यावरण संबंधित चिन्ताओ की सीमाओ के पार वैश्विक संरक्षण की प्रेरणा देते है। वर्तमान परिपेक्ष में जीव समुदाय का प्रबन्धन, वन संरक्षण, जल संरक्षण व मृदा संरक्षण किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। ब्रह्माण्ड की अखण्डता को बनाये रखने के लिए मानव का जागरूक होना आवश्यक है।

शब्दकोशः पर्यावरण, महामारी, ग्लोबल वार्मिंग, औद्योगिकीकरण, सतत विकास, जीव समुदाय का प्रबन्धन, वन संरक्षण, जल संरक्षण व मृदा संरक्षण।
 


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