हिन्दी उपन्यासों में वृद्ध विमर्श

वृद्धावस्था की बात करने पर अक्सर प्रसिद्ध फ़्रांसिसी लेखक अनातोले फ्रांस का वह कथन याद आता है - ’काश ! बुढ़ापे के बाद जवानी आती।’ अनातोले का वह कथन बड़ा ही सांकेतिक है - जवानी वह शारीरिक अवस्था है, जो जोश, उर्जा, शौर्य से ओत - प्रोत होती है, जिसके सहारा लेकर हर व्यक्ति अपने - अपने ढंग से जीवन - यापन तय करता है और इस क्रम में वह वृद्धावस्था तक पहुँचता है - बुजुर्ग वर्ग के पास जवानी वाली उर्जा शक्ति तो नहीं रह जाती, किन्तु रह जाता है विविध अनुभवों का भंडार। इन अनुभवों के आलोक में व्यक्ति को जवानी के अनुभव रहित जोश में किए गए अपने कई गलत निर्णयों और कार्यो का अहसास होता है, तो वह अनुताप की आंच में तपते हुए यह सोचता है कि अगर उसे बुढ़ापे में जवानी जैसी ताकत, स्फूर्ति मिल जाए तो वह पहले से बेहतर, श्रेयस्कर कार्य कर सकता है - यही आशय है अनातोले फ्रांस के इस कथन का - मूलतः बुढ़ापा जिसे आमतौर पर निष्क्रियता, शिथिलता की शारीरिक दशा समझकर बहुत काम की चीज नहीं समझा जाता, बचपन से लेकर जवानी तक के जीवन अनुभवों का भंडार होता है - ऐसा प्रकाशमय आलोक है जिसके सहारे से युवा पीढ़ी अपने वर्तमान को संवारते हुए भविष्य का शृंगार कर सकती है। यही कारण रहा है कि प्राच्य और पाश्चात्य दोनों परंपराओं में वृद्ध या वृद्धावस्था के प्रति सम्मानजनक भाव रहा है। इतिहास और साहित्य दोनों ही इस परंपरा के साक्षी हैं कि बुजुर्ग वर्ग के अनुभवों - सलाह, मशवारें से लाभ उठानेवाली, वृद्धों के दिखाये गये मार्ग पर चलनेवाली युवा पीढ़ी ही नव - निर्माण कर पाती है, जबकि इसके विपरीत मार्ग पर चलने वाली युवा शक्ति पतन की ओर ही जाती है। इसके प्रमाण स्वरूप हम महाभारत और रामायण की कथाओं को देख सकते हैं।


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